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कांकर पत्थर जोड़ के मस्ज़िद लयी बनाए, ता चढ़ मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय- कबीर दास।
भला हुआ कबीरदास जी नही रहे, वरना यहां ज़रूरत से ज़्यादा समझदार औऱ धार्मिक लोग उन्हें नोच के आज ही खा जाते। ट्रोल कर करके उनका जीना हराम कर देते। अरे भैया लाउडस्पीकर से धर्म का कुछ लेना देना नही होता। लाउडस्पीकर से सिर्फ शोर होता है। मुझे भी जागरण में फिल्मी गाने की धुन पे माता के भजन सोने नही देते। मुझे भी गुस्सा आता है। बंद होने चाहिए लाउडस्पीकर। धर्म और आध्यात्म जहां से शुरू होते हैं वहां लाउडस्पीकर और शोर का महत्व नही रहता। आध्यात्म या धर्म आंतरिक विषय हैं, बाहरी नहीं। हम इतने असहनशील हो चुके हैं कि बिना सोचे ही पल भर में बस रियेक्ट करना चाहते हैं। भयंकर से भयंकर कुतर्क करते हैं। अभी एक सज्जन ने लिखा कि उन्हें ट्रेन की आवाज़ डिस्टर्ब करती है ट्रेन बंद होनी चाहिए। पल भर के लिए सोचिये कि हम क्या होते जा रहे है?
कोई केजरीवाल का अंध भक्त, कोई अंध विरोधी। कोई मोदी जी का अंध भक्त, कोई अंध विरोधी।
यही हाल धर्म का चोला ओढ़े लोगों का है।
समालोचक मर गए अब सिर्फ आलोचक बचे है।
मेरी कही तो ही सही, नहीं तो नही। अच्छा बुरा देखने, सोचने और समझने की हमारी सोच तेज़ी से लगभग खत्म होती जा रही है। हम सब अलग-अलग कढ़ाई के तेल में उबल रहे हैं।
प्रियंक दुबे
दुनियां में कोई पत्रकार निष्पक्ष और सर्वज्ञाता नहीं होता। सबके अपने वर्जन होते हैं हमेशा याद रखिए, जो महज़ इस पर निर्भर करते हैं कि उन्होंने कितना और क्या देखा, साथ ही उनका पूर्वाग्रह क्या था और उनका मालिक कौन है।
किसी का उपन्यास है, किसी की कहानी और किसी की लघुकथा।
लेकिन सिर्फ उतना भर है जितना उसको दिखा।
सिर्फ अपने पसंदीदा एंकर, रिपोर्टर, चैनल या वेबसाइट को मत देखिए, आपका चहेता आपको धोखा दे सकता है। कुछ के अपने सेट एजेंडे हैं, कुछ को जानकारी कम है, कुछ के पास संसाधन कम है और बहुतों के पास सस्ते वाले पत्रकार।
दुनिया में अगर जापान नहीं देखा तो जापान नहीं है इस थ्योरी पर आगे मत बढ़िए। जापान दिखे ना देखे जापान है ध्यान रखिएगा।
सब अपने रंग में रंगे हैं। बिना धमक के आवाज नहीं होती। कोई चाटा खाकर दूसरा गाल आगे करता है तो कोई सामने वाले का मुंह तोड़ देता है। सब कुछ जगह, समय और माहौल पर होता है।
और कभी भी एक आंख से मत देखिए और ना लाल चश्मा लगा कर वरना वो कभी नहीं दिखेगा जो रंग असल है।
प्रियंक दुबे
राजनीति, जाति, सौंदर्य, आँसू, धमकी, सत्ता, लोभ, प्रेम, सब रस हैं तो मीडिया द्वारा अपनी औकात दिखाना लाज़मी है। लड़की आकर्षक न हो, जाति धर्म का एंगल न हो, मिस्ट्री न हो, मारकाट न हो, पैसा न हो, बड़ा आदमी ना हो तो मज़ाल है कि मीडिया उस पर बवाल काटे।
कैमरे के आगे किसी के ऊपर कुछ भी भोंकना, जी सही पढ़ा भौंकना ही आज की पत्रकारिता है। कुछ बंदर-बंदरियां कैमरा के आगे नवीनतम विकसित नृत्यावस्था में डाली-डाली पत्रकारिता करते हुए आये दिन वायरल होते रहते हैं।
अब समय आ गया कि दवा कंपनियां अपने रिप्रेजेन्टेटिव को डॉक्टर और अस्पतालों के पास भेजने के बजाय पत्रकारों और न्यूज़ चैनल्स के पास भेजने लगें। क्योंकि शायद ब्लड प्रेशर और हाइपरटेंशन के सबसे ज़्यादा मरीज़ इसी कुएँ से खोदे जा सकते हैं।
चैनेल्स में गेस्ट मुर्गे की तरह लड़ाये जाते हैं और मुर्गे भी फक-फक करते हुए अपना चेहरा चमकाने के लिए रोज़ाना अपनी बेइज़्ज़ती कराने शान से जाते हैं। लिपस्टिक लगाए बेईमान एंकर चिल्ला चिल्लाकर अपना एजेंडा बनाता है, जो उसके एजेंडे पर नहीं उसको बोलने नहीं दिया जाता।
पानी में डूबते आदमी से पत्रकार पूछता है कैसा लग रहा है? थाने, निगम, विभागों से मंथली की कहानी जगज़ाहिर है। जो जितना सुंदर या बॉस का चहेता या चमचा वही आगे बढ़ता है।
चौथे खम्बे में ज़ंग लग चुकी है। जिस दिन शटर गिरने लगता है तो कोई इमोशनल स्टोरी क्रिएट करके या स्टिंग प्लांट करके जीवनदान ले लिया जाता है।
आज पत्रकारिता का एकमात्र लक्ष्य है - रिवेन्यू
प्रियंक दुबे
बाबा पर मची घमासान के बीच एक सवाल अचानक से आया कि बाबा और टूथपेस्ट में क्या फर्क है?
ये भी ग्राहकों के बीच अपनी मार्केटिंग कर रहे हैं और वो भी।
टूथपेस्ट नमक के नाम पर बिक रहा है और बाबा धर्म के नाम पर।
इधर कंपनी सुकुमारी की कमनीय काया दिखाकर माल बेच रही है, उधर बाबा किसी भगवान की फोटो दिखाकर डर बेच रहा है।
कोमलांगी अपनी भाव भंगिमा से आकृष्ट कर रही है तो बाबा अच्छी किस्मत का लोभ दे रहे है।
'अज्ञान' का अँधेरा सर्वत्र रोशन है
😉 वैसे अपन 12 साल से एडवरटाइजिंग में ही है 🙂
प्रियंक दुबे